महिला दिन
कहते हैं एक सशक्त महिला पुरे समाज को सुधार सकती हैं जिस तरह एक शिक्षित महिला अपने परिवार को शिक्षित बना सकती है। कहते हैं डॉक्टर चाहता हैं हर कोई बीमार हो ताकि उसकी डॉक्टरकी चल सकते,बिल्डर चाहता हैं के हर कोई घर खरीदने की चाह रखे ताकि उसका धंदा चल पड़े, इसी तरह हर बिज़नेसमैन यह चाहता है के उसकी तरक्की के लिए सब लोग उसके अनुसार हो किन्तु एक शिक्षक या शिक्षिका ये नहीं चाहती के हर आदमी अनपढ़ हो वह यह चाहते हैं के हर कोई शिक्षित हो मतलब वह अपनी शिक्षा का पेशा शूरु रखने के लिए यह नहीं चाहते के हर आदमी अनपढ़ हो वह तो यह चाहते है के हर कोई पढ़ा लिखा हो इसी तरह हर गृहिणी अपने घर के लिए और हर स्त्री अपने अनुसार समाज के बढ़ावे के लिए कुछ न कुछ करती रहती हैं। ऐसे समय में जब औरत सशक्त हो रही हैं उस पर केंद्रित फिल्मों को क्यों रोक दिया जाता हैं। इस बारे में अलंकृता श्रीवास्तव के निर्देशन में बनी फिल्म " लिपस्टिक अंडर माय बुर्का" को सेंसर बोर्ड ने यह कहकर रोक लगा दी हैं के इस फिल्म से समाज में तनाव बढ़ेगा। यह फिल्म चार महिलाओं की कहानी हैं , जो भारत के एक छोटे शहर में रहती हैं और इनके अपने सपने और इच्छाये हैं। इस पर रोक लगाना या ना लगना यह वाद विवाद का विषय हो सकता हैं, किन्तु फिल्म देखना या न देखना यह तो जनता के ऊपर निर्भर हैं। इस तरह की कंट्रोवर्सी से फिल्मों की अपने आप पब्लिसिटी होती हैं। उल्टा अगर इसे सेंसर बोर्ड पास कर देता तो जिसे देखना हो और जिसे ना देखनी होती वह ना देखते। जब हम स्त्री मुक्ति की बात करते हैं और ऐसी फिल्मों पर रोक लगाते हैं तो वह क्या दर्शाते हैं के आज भी हमारे अंदर पुरुषि मानसिकता हैं जिसे बदलने को हम तैयार नहीं हैं। जब हम २०१७ में जी रहे हैं और किसी फिल्म को एक मनोरंजन के हिसाब से स्वीकारने को तैयार हैं तो उसे क्या कहेंगे। वह ज़माना गया जब स्त्री को एक सिमित दायरे में रखा जाता था। जब हमने उसे हर क्षेत्र में जाने को बढ़ावा दिया हैं तो उसके बारे में जो कुछ गलत धारणाये फिल्मों में दिखाई जा रही हैं जो की गलत धारणा हैं तो उसे स्वीकार कर बदलने को हम तैयार क्यों नहीं। और यह " लिपस्टिक अंडर माय बुर्का" के ऊपर प्रतिबन्ध का निर्णय उस समय आया हैं जब पूरी दुनिया की महिलायें स्त्री द्वेष , लिंग आधारीत हिंसा और वह सब कुछ जो " गैर स्त्री उन्मुख" हैं के खिलाफ ८ मार्च को हड़ताल करने वाली हैं। यह विडम्बना हैं के प्रथम अन्तर्रष्ट्रीय महिला दिवस मानाने के १०० वर्ष बाद भी महिलायें समानता के लिए लड़ रही हैं। हमें राखी बांधने के लिए बहन चहिये, खाना बनाने की लिए माँ चाहिए, अपनी सेवा के लिए बीवी चाहिए किन्तु उसी घर में जब बेटी पैदा होती हैं तो उसे नकारा जाता हैं। इसी तरह के भेदभाव और महिलाओं के प्रति होने वाले अन्याय के खिलाफ महिलायें ८ मार्च को हड़ताल कर रही हैं। यह एक दिन का आव्हान यह दिखाने के लिए किया गया हैं के महिला के बगैर यह दुनिया कैसे दिखेगी। महिलाये न तो उस दिन काम पर जायेगी और न ही घर में काम करेंगी या कुछ खरीददारी करेंगी। यह " डे विदाउट वीमेन" हड़ताल ३० देशों में होने के लिए आवाहनित की गयी हैं। यह " डे विदाउट वीमेन" हड़ताल के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपती डोनाल्ड ट्रम्प और उन सामजिक अन्यायों का विरोध किया जाएगा जिनके कारण वे सत्ता में पहुँच सके। इसी के कारण हमारे देश में भी सुधार को भविष्य के तौर पे देखा जा सकता हैं।
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